Sunday 16 October, 2011

Parmanand

सागर चाहे सुख का हो चाहे दुःख का सागर होता है
समुन्दर में आदमी चाहे ना चाहे पर किनारा ढूंढता है
येही प्रश्न सर्वाधिक चिंतन के योग्य है
इसे जिसने समझा वोही सुयोग्य है
सत्व ,रज और तम के गुणों से प्रभावित व्यक्ति सोच नहीं पाता
सात्विकता का अंश बढ़ने से ही तुरीयावस्था का ज्ञान है हो पाता
व्यक्ति स्वयं ही किनारा है उसे कहीं भी जाना नहीं है
तनिक भी समुन्दर की लहराती लहरों से घबराना नहीं है
स्वयं को शरीर मान कर ही वो मृत्यु से डरता रहता
आत्मा उसका स्वरुप और अविनाशी का नाश नहीं हो सकता
ये जीवन इसी परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हेतु तो मिला हुआ है
जिसने इसे पाया परमानन्द का केंद्र हो गया है

6 comments:

  1. रश्मि जी शास्त्री जी आपने रचना को पढ़ा आभार
    आपके शब्दों हेतु धन्यवाद !

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  2. मोनिका जी,अनुपमा जी आपका बहुत आभार
    धन्यवाद!

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